मेराजुल हक़ ने 1962 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अपनी B.Sc की डिग्री हासिल किया था। इनके तीन गज़ल-संग्रह – ‘नामूश’ , ‘थोड़ा सा चन्दन’ और ‘बेख्वाब साअते’ प्रकाशित हुए। भारत के साथ-साथ पूरें विश्व में जहा भी हिंदी-उर्दू बोली और सुनी जाती है वहाँ मेराज फैज़ाबादी के शेर कहे और सुने गए। मेराज फैज़ाबादी का इंतकाल नवम्बर 2013 को लखनऊ में हुआ।
झील आँखों को न होंठों को कमल कहते हैं,
हम तो जख्मों की नुमाइश को ग़ज़ल कहते हैं।
मेरे अल्फाज का यह शीश महल सच हो जाए,
मैं तेरा जिक्र करूं मेरी गजल सच हो जाए,
ज़िन्दगी भर तो कोई झूठ जीया है मैंने,
तू जो आ जाये तो यह आख़िरी पल सच हो जाए।
एक टूटी हुई जंजीर की फ़रियाद है हम,
और दुनिया समझती है की आजाद है हम,
हमको इस दौर की तारीख ने दिया क्या ‘मेराज’,
कल भी बर्बाद थे आज भी बर्बाद है हम।
ऐ यकीनों के ख़ुदा शहरे गुमां किसका है,
नूर तेरा है चरागों में धुआं किसका है।
आँख और ख्वाब में एक रात की दूरी रखना,
ऐ मुसव्विर मेरी तस्वीर अधूरी रखना,
अब के तख़लीक़ जो करना कोई रिश्तों का निज़ाम,
दुश्मनी के भी कुछ आदाब ज़रूरी रखना।
सुना है बंद कर लीं उसने आँखें,
कई रातों से वो सोया नहीं था।
मुहब्बत को मेरी पहचान कर दे,
मेरे मौला मुझे इंसान कर दे,
मुहब्बत, प्यार, रिश्ते, भाईचारा,
हमारे दिल को हिंदुस्तान कर दे।
हमारी नफरतों की आग में सब कुछ न जल जाए,
कि इस बस्ती में हम दोनों को आइन्दा भी रहना है,
मना ले कुछ देर जश्न दुश्मन की तबाही का,
फिर उसके बाद सारी उम्र शर्मिंदा भी रहना है।
Hamari nafraton ki aag mein sab kuch na jal jaaye,
ki is basti mein hum dono ko aainda bhi rahna hai,
fir uske baad saari umar sharminda bhi rahna hai.
बढ़ गया था प्यास का अहसास दरिया देखकर,
हम पलट आए मगर पानी को प्यासा देखकर,
खुदखुशी लिखी थी एक बेवा के चेहरे पर मगर,
फिर वो जिन्दा हो गयी बच्चे बिलखता देखकर।
पढ़ाओं न रिश्तों की कोई किताब मुझे,
पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियां मैंने।