वो उम्र भर कहते रहे तुम्हारे सीने में दिल नहीं,
दिल का दौरा क्या पड़ा ये दाग भी धुल गया।
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘गालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।
इसलिए कम करते हैं जिक्र तुम्हारा,
कहीं तुम खास से आम ना हो जाओ।
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं,
कभी हम उनको तो कभी अपने घर को देखते हैं।
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को,
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं,
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ़्तगू क्या है।
लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में,
और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते।
जिंदगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,
कफन भी लेते है तो अपनी जिंदगी देकर।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है।
मौत पे भी मुझे यकीन है,
तुम पर भी ऐतबार है,
देखना है पहले कौन आता है,
हमें दोनों का इंतजार है।
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब,
नसीब उनके भी होते है जिनके हाथ नहीं होते।
इश्क़ ने गालिब निकम्मा कर दिया,
वर्ना हम भी आदमी थे काम के।
दुःख दे कर सवाल करते हो,
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो।
हमें पता है तुम कहीं और के मुसाफिर हो,
हमारा शहर तो बस यूँ ही रास्ते में आया था।
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे।
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।
उनको देखने से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते हैं की बीमार का हाल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल की खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।