छु ले तू आसमान जमीन की तलाश न कर,
जी ले ये जिंदगी खुशी की तलाश न कर,
तकदीर भी बदल जाएगी खुद ही मेरे दोस्त,
मुस्कुराना सीख ले वजह की तलाश न कर।
दोस्ती की कद्र करना हर किसी को नही आता,
हर कोई इस दोस्ती के फर्ज को निभा नही पाता,
दोस्ती निभाने के लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है,
इसकी मेहकती हवाओं में भी बहना पड़ता है।
दिल खोल कर सारी बातें कर लेते है,
ज़िंदगी के गम को हम मिलकर सह लेते है,
गुज़ार देते है सारा दिन मस्ती-मज़ाक में,
ऐसे ही हम दोस्ती के लम्हो को जी लेते है।
पढ़ाओं न रिश्तों की कोई किताब मुझे,
पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियां मैंने।
बढ़ गया था प्यास का अहसास दरिया देखकर,
हम पलट आए मगर पानी को प्यासा देखकर,
खुदखुशी लिखी थी एक बेवा के चेहरे पर मगर,
फिर वो जिन्दा हो गयी बच्चे बिलखता देखकर।
हमारी नफरतों की आग में सब कुछ न जल जाए,
कि इस बस्ती में हम दोनों को आइन्दा भी रहना है,
मना ले कुछ देर जश्न दुश्मन की तबाही का,
फिर उसके बाद सारी उम्र शर्मिंदा भी रहना है।
Hamari nafraton ki aag mein sab kuch na jal jaaye,
ki is basti mein hum dono ko aainda bhi rahna hai,
fir uske baad saari umar sharminda bhi rahna hai.
मुहब्बत को मेरी पहचान कर दे,
मेरे मौला मुझे इंसान कर दे,
मुहब्बत, प्यार, रिश्ते, भाईचारा,
हमारे दिल को हिंदुस्तान कर दे।
सुना है बंद कर लीं उसने आँखें,
कई रातों से वो सोया नहीं था।
आँख और ख्वाब में एक रात की दूरी रखना,
ऐ मुसव्विर मेरी तस्वीर अधूरी रखना,
अब के तख़लीक़ जो करना कोई रिश्तों का निज़ाम,
दुश्मनी के भी कुछ आदाब ज़रूरी रखना।
ऐ यकीनों के ख़ुदा शहरे गुमां किसका है,
नूर तेरा है चरागों में धुआं किसका है।
एक टूटी हुई जंजीर की फ़रियाद है हम,
और दुनिया समझती है की आजाद है हम,
हमको इस दौर की तारीख ने दिया क्या ‘मेराज’,
कल भी बर्बाद थे आज भी बर्बाद है हम।
मेरे अल्फाज का यह शीश महल सच हो जाए,
मैं तेरा जिक्र करूं मेरी गजल सच हो जाए,
ज़िन्दगी भर तो कोई झूठ जीया है मैंने,
तू जो आ जाये तो यह आख़िरी पल सच हो जाए।
झील आँखों को न होंठों को कमल कहते हैं,
हम तो जख्मों की नुमाइश को ग़ज़ल कहते हैं।
मेराजुल हक़ ने 1962 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अपनी B.Sc की डिग्री हासिल किया था। इनके तीन गज़ल-संग्रह – ‘नामूश’ , ‘थोड़ा सा चन्दन’ और ‘बेख्वाब साअते’ प्रकाशित हुए। भारत के साथ-साथ पूरें विश्व में जहा भी हिंदी-उर्दू बोली और सुनी जाती है वहाँ मेराज फैज़ाबादी के शेर कहे और सुने गए। मेराज फैज़ाबादी का इंतकाल नवम्बर 2013 को लखनऊ में हुआ।
मेरा गीत सुना है दुनिया वालों ने,
लेकिन मेरा दर्द कोई जान ना सका,
एक तेरा ही तो सहारा था दिल को,
पर तू भी मुझे पहचान ना सका।
गवाई किस तमन्ना में ज़िन्दगी मैंने,
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैंने,
तेरा ख़याल तो है पर तेरा वजूद नहीं,
तेरे लिए ये महफ़िल सजाई मैंने।
ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया,
मैं तो उस ज़ख़्म को ही भूल गया।
हमारे ज़ख़्म ए तमन्ना पुराने हो गए हैं,
कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं।
महक उठा है आँगन इस ख़बर से,
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से।
आखिरी बार आह कर ली है,
मैंने खुद से निबाह कर ली है,
अपने सर एक बाला तो लेनी थी,
मैंने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली हैं।